सोमवार, 26 जुलाई 2021

रामानुज त्रिपाठी के गीतों में नव-मानवतावाद by सत्यम भारती

               रामानुज त्रिपाठी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं। इनके गीतों में विषयों का विस्तार, कला का सुंदर नमूना, नवीन प्रयोग, संवेदना की साफगोई और नव मानवतावाद एक साथ दृष्टिगोचर होता है। गीतकार अपने गीतों में लोक में प्रचलित संज्ञाओं का मानवीकरण कर भावों को नवीनता प्रदान करते हैं तो वहीं समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाकर समाज के हर वर्ग को साहित्य में उसकी समान उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वे नगरीय संस्कृति एवं आधुनिकता के दुष्प्रभाव के चित्रण करने के साथ-साथ ठेठ गंवई संस्कृति का भी चित्रण प्रस्तुत करते हैं। उनके गीतों में प्रेम के विविध रूप देखने को मिलता हैं, यहाँ देशप्रेम, वात्सल्य प्रेम, प्रकृति प्रेम ,मर्यादित प्रेम आदि एक साथ दृष्टिगोचर होता है। वे मर्यादित प्रेम के पक्षधर हैं, उनके गीतों में मर्यादित प्रणय संबंधों का सुंदर निर्वाहन मिलता है-

 नेह के उपवन में
 महके जब पारिजात
 शरमा के पूनम का
 चांद जब तमाम रात
 बादलों की ओट में
 हो जाए गुम
 चले आना तुम। 

सामान्यवादी दृष्टिकोण वही अपना सकता है जिसके पास मानवों से प्रेम करने की अपार क्षमता हो, सच को सच कहने और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने की शक्ति हो। इनके गीतों में निर्धनों के प्रति संवेदना है, किसानों के प्रति आशा है, निम्न जातियों के लिए सहयोग की भावना है-

सिसक कर 
दीवट पे जलता हर चिराग 
रोशनी का वहम केवल ढो रहा है। 

"भूख " देखने में तो बहुत छोटा शब्द लगता है, लेकिन इसके चपेट में आकर कितने लोग अब तक जान गवा चुके हैं। आजादी के इतने साल बाद भी यहाँ भूख से मरने वालों की संख्या अधिक है  । गीतकार गरीबी की कोढ़ "  भूख " का करूण चित्रण अपने गीतों में प्रस्तुत करते हैं-

 बर्तन में
 अदहन का पानी
 गया खौल कर सूख
 बैठी है
 चूल्हे के आगे
 आस लगाए भूख।

आज का मानव, संक्रमण काल से गुजर रहा है । एक तरफ वह समाज की कुरीति, ऑफिस ,बाजार ,सत्ता एवं पूंजी के गठजोड़ आदि से उत्पन्न हुई समस्याओं से जूझ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ वह अपने मन के भीतर की व्याधियों से भी दो - दो हाथ कर रहा है। कुंठा, संत्रास, प्यास, वासना एकाकीपन आदि वह व्याधि है जो मानव को लघुमानव की ओर ले जा रहा है -

न ही कोई आहट
न हुई पदचाप 
घुस आया अंतस में 
कहाँ से संताप। 

मन पर नियंत्रण नहीं होने से अतृप्त इच्छाएँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि उसे तृप्त करने के लिए हमें सैकड़ों कुर्बानियां देनी पड़ती है। क्षण- क्षण बदलते मानवों के मन उसे कमजोर करता जा रहा है और वह किसी चीज पर फोकस नहीं कर पा रहा। इनके गीतों में "क्षणवाद" का सुंदर उदाहरण मिल जाता है जो आधुनिक मानव के मन - मस्तिष्क की अस्पष्ट नियति बन चुकी है-

क्षण में याद आया कुछ 
भूल गया फिर क्षण में 
सुबह से शाम तक
बस केवल दर्पण में
निरख-निरख रूप
शरमाने के। 

बहुत कुछ की चाह और मशीनीकरण ने हमें स्वार्थी बना दिया है। हम निज स्वार्थ के लिए रिश्ते, नाते, मां-बाप सब को भूलते जा रहे हैं। रिश्तों  में बिखराव वर्तमान समय की प्रधान समस्या है। संयुक्त परिवार की अवधारणा अब बिल्कुल विलुप्त होने लगी है। संवाद के अभाव में अच्छे - अच्छे रिश्ते टूट जा रहे हैं। गीतकार के गीतों में रिश्तोंं केे टुटन, संवाद का अभाव, नेह का महावर आदि का सुंदर वर्णन मिलता है-

अनंतिम
संवाद -
तो पीछे पड़े हैं
प्रश्नचिन्ह
तमाम
सिरहाने खड़े हैं  ।

जब कोई दोस्ती, रिश्ता या व्यापार स्वार्थ की बुनियाद पर टिकी हो तथा लाभ - हानि का परस्पर अन्योन्याश्रय  संबंध हो, तब "समझौता " की उत्पत्ति होती है। समझौता में हमारा तन तो आपस में साथ रहता है लेकिन मन कोसों दूर चला जाता है।  आजकल राजनीति से लेकर रिश्ते तक सब जगह समझौता ही चल रहा है, इनके गीत समझौतों के गीत हैं-

परिभाषित होने से पहले
टूट गए सपने
और अचीन्हे समीकरण ही
हुए आज अपने 
समझौते पर प्रत्याशाएं
हुईं बहुत मजबूर  । 

अपने समाज से अब तप, दया, करूणा, प्रेम, सद्भाव , सहयोग, मर्यादा आदि जो मानवीय गुण कहा जाता था अब विलुप्त होने की कगार पर है  । मानवों में दानवी गुण दिनों - दिन घर करता जा रहा है  । रामानुज जी के गीत गिरते नैतिक मूल्य के विरूद्ध प्रतिरोध करता  है -

कहिए! किसको कहें आदमी
सिर्फ खड़े हैं ढाँचे जी।
बीच सड़क पर मरे हुओं की
पड़ी हुईं लावारिश लाशें
सब मुंह फेर चले जा रहे
मानवता को कहाँ तलाशें  । 

आधुनिक मानवों को जितना डर दुश्मनों से नहीं है उतना डर उसके अपनों से है  । वे हमारे अपने ही हमारे लिए चक्रव्यूह बनाते हैं और षड्यंत्र में शामिल  भी होते हैं , कहते हैं - "  घर का भेदी लंका ढाए "  ।  इनके गीत  हमें सचेत करता है ,आस्तीन के सांपों को पहचानने की सलाह देता है तथा षड्यंत्र के शिकार होने से बचने का नुस्खा भी प्रदान करता है -

झूठला कर हर नाते
अपनों से बार-बार बच रहे
आए दिन कितने ही व्यूह
विद्रोही अब रच रहे
अभिमन्यु कौन-कौन 
चक्रव्यूह तोड़े। 
नफरत का विष मानव में बचपन से ही भरा जाता है  । बचपन में घरवाले तो युवावस्था में मीडिया, सोशल साइट ,अराजक तत्व और राजनीति नफरत की आग भड़का कर उन्हें दिग्भ्रमित करते हैं । हम आज बारूद के पेड़  पर चढ़े बैठे हैं जिसे वर्षों से नफरत पोषित करती आई है  । गीतकार के गीत नफरत की मायावी पेड़ से वापस उतरने का मार्ग बताते हैं-

आंधियाँ नफरत की 
इतनी बहीं तेज
उड़ गए हर संहिता
के पेज-पेज 
रह गए अवशिष्ट पन्ने
रक्त-रंजित पाठ के । 

नफरत की आग में सबसे ज्यादा जनता ही जलती है। जनता को इस लोकतंत्र में सिर्फ वोट डालने के लिए रखा गया है। नेता हर बार कुछ नया जुमला फेक कर हमें बेवकूफ बना जाते हैं और फिर अगले चुनाव में ही वो अपना मुंह  दिखाते हैं। इनके गीतों में लोकतंत्र के गिरते स्तर, चुनावी हथकंडा, राजनेताओं का दोहरा चरित्र, कागज पर विकास ,कथनी करनी में फर्क तथा जनता की स्थिति का जीवंत चित्रण है-

देख रहा सपने रोटी के 
भूखा प्यासा मतदाता है 
पाकर चुपड़ी का आश्वासन 
वह लालच में फंस जाता है
देकर  मत  फिर भस्मासुर को
बन बैठा है औघड़दानी। 

 समाज धीरे-धीरे  बदल रहा है, एक वर्ग  जो बरसों से शोषित होता आया है उसमें भी अब जागृति आने लगी है, कीचड़ में ही कमल खिलने लगा है और अंधेरी बस्ती में भी अब चिराग जलने लगे हैं। इनके गीतों में इस परिवर्तन को सकारात्मक रूप से वर्णित किया गया है।प्राचीन परंपरा, वर्जना और रूढ़ियों के टूटने से गीतकार खुश नजर आ रहे हैं क्योंकि कहा गया है- "परिवर्तन ही संसार का नियम है।"

टूटा हवाओं का सिलसिला 
लहरों का एक पृष्ठ फिर खुला
सागर की नादान बेटियों ने 
चुपके से लिख दिया नाम।

जब बच्चों का सही से परवरिश नहीं हो पाता है तब वह अंधकार से हाथ मिला लेता है  । सही परवरिश के अभाव में समाज में न जाने कितने चोर, उचक्के, आतंकवादी पैदा हो रहे हैं  । रामानुज जी के गीत इस समस्या से भी हमें रूबरू कराता है-

अरमानों के पारिजात पर 
अंगारों के फूल खिले
रोशनीयों के बालिग बेटे 
अंधकार से गले मिले। 

इनके गीतों में एक कलाकार का सूखा जीवन, संघर्ष, स्वाभिमान आदि का भी जिक्र मिलता है  । एक कवि या साहित्यकार  कैसे एकाकी होकर साहित्य की सर्जना करता है, आम जन की आवाज बनता है ,लोगों के चेहरे पर खुशी लाता है; लेकिन उसके जीवन में क्या चल रहा है उसके बारे में कोई पूछने वाला नहीं है-

आहिस्ता खोलता है
डायरी के पन्ने 
कलम के कान जब 
हो जाते हैं चौकन्ने
फिर कुछ लिखता है 
लिख-लिख कर खोता है 
जब गांव सोता है। 

साहित्य में सब नाम नहीं कमा सकता, सब अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाते । साहित्य में आलोचकों की कलम, नेताओं की सिफारिश ,क्षेत्र का प्रभाव तथा चाटुकारिता भी हावी है  । परिणामतः अच्छी -अच्छी प्रतिभा जमींदोज हो जाती हैं, उसे फलने से पहले ही कुचल दिया जाता है ;रामानुज जी के गीत इस तरफ भी इशारा करता है -

सर्जना तो हुई है आज तक गगनचुंबी
किंतु पक्षधरता की गंध आ समाई है  ।

भाव पक्ष की ही तरह शिल्प पक्ष भी इनके गीतों में लाजवाब है। भाषा तत्सम प्रधान और लोकाधर्मी है, प्रतीकों का सुंदर प्रयोग यहाँ मिलता है - शबनम, पारिजात, शब्द ,तूलिका, रेत,दर्पण ,अहेरी, शिलालेख आदि इनके प्रिय प्रतीक हैं। प्रतीक उनके गीतों को सजीवता प्रदान कर भाव का नया मार्ग  खोलते हैं-

समेटे चुप्पी नियति की खिड़कियाँ
सह रहीं रुठे समय की झिड़कियाँ
घुन गए तकदीर के अमृत किवाड़े
कौन सांकल खटखटाए 
कौन खोले?

अगर अलंकार की बात करें तो यहाँ उपमा, रूपक, अनुप्रास, मानवीकरण का सुंदर प्रयोग मिलता है। 
 प्रकृति का मानवीकरण इनके गीतों में सुंदर तरीके से अभिव्यक्त होता है। चांद के मानवीकरण का सुंदर उदाहरण देखें-

 सांझ हुई अवसन्न 
 पत्थरों पर चुप्पी बोकर।

 रातों की आजानुबाह में
 सिमटी दसों दिशाएँ
 शायद छप्पन भोग लिए
 शशि की बालाएं आएं। 

अभिधा में कम , लक्षणा और व्यंजना में इनके गीत अधिकतर हैं। लक्षणा एवं व्यंजना का सुंदर प्रयोग व्यंग्य और प्रस्तुत-अप्रस्तुत योजना के लिए किया गया है-

 सुना, तुम्हारी मटकी में
 कुल सात - समुंदर हैं!

अंततः यह कहा जा सकता है कि रामानुज जी मानवीय संघर्ष और उल्लास  के गीतकार हैं। इनके गीत आधुनिक मानव की नियति एवं नियत का जीवंत दस्तावेज है। इनके गीतों में नव मानवतावाद के विविध पक्षों का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। वीरेंद्र मिश्र के शब्दों में कहें तो इनके नवगीत "आस्थाशील अनुभूतियों का निर्बंध समवेत स्वर हैं।" 

सत्यम भारती
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली, 110067
मो. - 8677056002.