मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

समीर परिमल की एक उम्दा और मेरी पसंदीदा ग़ज़ल

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वही है बस्ती, वही हैं गलियाँ, 
बदल गया है मगर ज़माना
नए परों के नए परिंदे, 
नई उड़ानें, नया फ़साना।

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चलो भुला दें तमाम वादे, 
तमाम कसमें, तमाम यादें
न मैं मुहब्बत, न तुम इबादत, 
न याद करना, न याद आना।

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करीब आके, नज़र मिलाके, 
मुझे चुराके चला गया वो
पता न उसका, ख़बर न अपनी, 
भटक रहा है कोई दिवाना।

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न सुबह ही अब तो शबनमी है, 
न शाम ही अब वो सुरमई है
हवाएँ गुमसुम, फ़िज़ाएं बेदम, 
रहा न मौसम वो आशिक़ाना।

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दुआ किसी की बनी मुहाफ़िज़, 
उसी के साए में हम खड़े हैं
गुज़र चुकी है यहाँ से आँधी, 
मगर सलामत है आशियाना।
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समीर परिमल
पटना, बिहार

समीर परिमल की ग़ज़लें

        


  ग़ज़ल - 1
 

गर मुहब्बत जवान हो जाए
ये ज़मीं आसमान हो जाए
सबकी मीठी ज़ुबान हो जाए
खूबसूरत जहान हो जाए
बन गया मैं अज़ान मस्जिद की
तू भी मुरली की तान हो जाए
आरज़ू मुख़्तसर सी है अपनी
दिल ये हिंदोस्तान हो जाए
हौसलों के परों को खोलो भी
आसमां तक उड़ान हो जाए
इक नज़र देख ले इधर साक़ी
ज़ब्त का इम्तहान हो जाए
राहे उल्फ़त में चल पड़ा 'परिमल'
चाहे मुश्किल में जान हो जाए

        
 ग़ज़ल - 2


बड़ा जबसे घराना हो गया है
ख़फ़ा सारा ज़माना हो गया है

हुई मुद्दत किए हैं ज़ब्त आंसू
निगाहों में खज़ाना हो गया है

मुहब्बत की नज़र मुझपर पड़ी थी
वो खंज़र क़ातिलाना हो गया है

जड़ें खोदा किए ताउम्र जिसकी
शजर वो शामियाना हो गया है

दिवाली-ईद पर भाई से मिलना
सियासत का निशाना हो गया है

चलो 'परिमल' की ग़ज़लें गुनगुनाएं
कि मौसम शायराना हो गया है

        
          ग़ज़ल - 3          


ग़मे-इश्क़ पूछो न कैसी बला है
अभी इब्तिदा है, अभी इंतेहा है

मैं उससे ख़फ़ा हूँ, वो मुझसे ख़फ़ा है
ये बरसों पुराना हसीं सिलसिला है

निगाहों में दरिया, लबों पर तबस्सुम
मुहब्बत का यारों अजब फ़लसफ़ा है

संभालोगे रिश्तों का तुम बोझ कैसे
फ़लक से भी ऊँची तुम्हारी अना है

हुनर बेवफ़ाई का मुझको सिखा दे
मुझे भी ज़माने का दिल तोड़ना है

लिपटकर चिराग़ों से शब् रो रही है
जुदाई का सूरज चला आ रहा है

न दौलत की चिंता, न शोहरत की चाहत
फ़क़ीरी का अपना अलग ही मज़ा है



           ग़ज़ल - 4           


प्यार देकर भी मिले प्यार, ज़रूरी तो नहीं
हर दफ़ा हम हों ख़तावार, ज़रूरी तो नहीं

खून रिश्तों का बहाने को ज़ुबाँ काफी है
आपके हाथ में तलवार ज़रूरी तो नहीं

एक मंज़िल है मगर राहें जुदा हैं सबकी
एक जैसी रहे रफ़्तार, ज़रूरी तो नहीं

आपके हुस्न के साए में जवानी गुज़रे
मेरे मालिक, मेरे सरकार, ज़रूरी तो नहीं

दीनो-ईमां की ज़रुरत है आज दुनिया में
सर पे हो मज़हबी दस्तार, ज़रूरी तो नहीं

एक दिन आग में बदलेगी यही चिंगारी
ज़ुल्म सहते रहें हर बार, ज़रूरी तो नहीं



© समीर परिमल
राजकीय कन्या मध्य विद्यालय,
राजभवन (पटना)
मोबाइल - 9934796866
ईमेल samir.parimal@gmail.com

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

गीतिका की अवधारणा को पुष्ट करने वाली प्रचुर गीतिकाओं का एक लक्षण ग्रंथ-'गीतिकालोक'

गीतिका की अवधारणा को पुष्ट करने वाली प्रचुर गीतिकाओं का एक लक्षण ग्रंथ-'गीतिकालोक'
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समीक्ष्य कृतिगीतिकालोक, कृतिकारओम नीरव (पृष्ठ – 280, पेपर कवर, मूल्य – 300 रूपये, संपर्क – 07526063802) 
समीक्षक - दिनेश कुशभुवनपुरी, सुलतानपुर उ.प्र.
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             हिन्दी में ग़ज़ल लिखने का कार्य एक लम्बे समय से होता रहा है और ऐसी रचनाओं को ‘हिन्दी ग़ज़ल’, ‘युग्मिका’, ‘गीतिका’ आदि नाम दिये जाते रहे हैं किन्तु हिन्दी साहित्य में इसकी कोई अलग पहचान आजतक नहीं बन पायी है, अधिकांश प्रयास केवल भाषान्तर या नामान्तर तक ही सीमित होकर रह गये हैं। हिन्दी कविता के मर्मज्ञ ओम नीरव ने हिन्दी ग़ज़ल को कुछ विशिष्ट मानकों के साथ ‘गीतिका’ नाम से एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने की दिशा में अपने ढंग का एक अनूठा प्रयास किया है, जिसकी एक सुखद एवं शिखर परिणति है काव्यकृति ‘गीतिकालोक’।

                 कृति के आकर्षक मुख पृष्ठ पर इंगित ‘गीतिका विधा एवं गीतिका संकलन’ देखकर ही आभास होने लगता है कि पुस्तक में कुछ विशेष अवश्य है। भीतर की सामग्री को देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि यह कृति जहाँ एक ओर नव-सृजित गीतिका विधा की सांगोपांग व्याख्या के साथ हिन्दी काव्य का एक लक्षण ग्रंथ प्रस्तुत करती है, वहीं दूसरी ओर गीतिका की अवधारणा को पुष्ट करने वाली प्रचुर गीतिकाओं का संकलन भी प्रस्तुत करती है। इसके प्रथम भाग में गीतिका विधा और इससे संबन्धित सभी काव्य तत्वों की सोदाहरण सरल सुबोध व्याख्या की गयी है जैसे ‘तकनीकी शब्दावली’ में पद, युग्म, मुखड़ा, मनका, समान्त, पदान्त, मापनी, आधार छन्द आदि को परिभाषित किया गया है, परिवर्तन तालिका में स्वरक, लगावली, मात्राक्रम और रुक्न के आपसी संबंध को समझाया गया है, अगले आलेखों में ‘मात्राभार’, ‘तुकान्त विधान’, मापनी, आधार छन्द, छंदों का मापनी के आधार पर वर्गीकरण, गीतिका का तानाबाना, मुक्तक का मर्म आदि विषयों का सरल भाषा में विवेचन किया गया है। ‘गीतिका का तानाबाना’ आलेख के अनुसार ‘गीतिका विधा’ सामान्य हिन्दी ग़ज़ल नहीं है , अपितु वह हिन्दी ग़ज़ल है जिसमें हिन्दी भाषा की प्रधानता हो, हिन्दी व्याकरण की अनिवार्यता हो और मापनियों के साथ-साथ हिन्दी छंदों का अधिकाधिक समादर हो। इसी क्रम में आलेख ‘गीतिका की भाषा’, ‘गीतिका और उर्दू ग़ज़ल’ और ‘गीतिका नाम ही क्यों’ प्रतिपाद्य विषय को पूर्णता प्रदान करने में समर्थ हैं। ‘प्रचलित मापनियाँ और आधार छन्द’ शीर्षक आलेख में विस्तार से स्पष्ट किया गया है कि किसप्रकार प्रचलित मापनियाँ वास्तव में हिन्दी छंदों का रूपान्तरण मात्र हैं। इस कृति में मात्रिक और वर्णिक छंदों का मापनियों के साथ तालमेल आद्योपांत देखते ही बनता है और यह प्रयोग निश्चित रूप से छंदों को लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

                     ‘मापनी विज्ञान’ कृतिकार का अपना शोध है जिसमें यह दिखाया गया है कि किस प्रकार लघु-गुरु की एक ही तरंग से अनेक मापनियों और छंदों का निर्माण होता है। फिल्मी गीतों से प्रारम्भ करते हुए किसप्रकार गीतिका रचने की कला सीखी जा सकती है, इसे सटीक उदाहरण के साथ ‘आओ रचें गीतिका’ शीर्षक आलेख में बड़े रोचक ढंग से समझाया गया है। इस कृति में हिन्दी छंदों का एक नए प्रकार से वर्गीकरण किया गया है जिसके अनुसार समस्त छंदों को दो भागों में विभाजित किया गया है – मापनीयुक्त और मापनीमुक्त। मापनी युक्त मात्रिक और वर्णिक छंदों को क्रमशः वाचिक और वर्णिक मापनियों के आधार पर सटीक उदाहरणों के द्वारा निरूपित करते हुये कृतिकार ने स्पष्ट किया है कि ऐसे छंदों की मापनी जान लेने के बाद पूरा शिल्प समझ में आ जाता है और अन्य बातें जानने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। आलेख ‘मुक्तक का मर्म’ में प्रचलित मुक्तक रचने की कला को समझाते हुए मुक्तक के अन्य संदर्भ भी दिये गये हैं। ‘तुकान्त विधान’ एक अपने ढंग का अलग आलेख है जो गीतिका के साथ-साथ छांदस काव्य की समस्त विधाओं में उपयोगी है। इस प्रकार ‘गीतिकालोक’ कृति का प्रथम भाग जहां एक ओर ‘गीतिका-विधा’ का सम्यक निरूपण करता है, वहीं दूसरी ओर छंदस काव्य की अन्य विधाओं के लिए भी सृजनोपयोगी सामग्री प्रदान करता है।

                    मेरा विश्वास है कि हिन्दी कविता को समर्पित साहित्यसेवी ओम नीरव प्रणीत समीक्ष्य काव्यकृति ‘गीतिकालोक’ समकालीन लेखनी का दिशाबोध करते हुए गीतिका विधा के संदर्भ ग्रंथ के रूप में हिन्दी साहित्य में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने में सफल होगी। अनंती शुभकामनाओं के साथ,गीतिकलोक के दूसरे भाग ‘गीतिका संकलन’ में सत्तासी गीतिकाकारों की 161 बहुआयामी गीतिकाओं का संकलन है जो कि इस दृष्टि से अद्वितीय है कि इसमें प्रत्येक गीतिका के साथ उसका शिल्प विधान भी दिया गया है जिसमें आधार छन्द, मापनी, समान्त और पदान्त का उल्लेख किया गया है। मुझे हिन्दी काव्य संकलनों के इतिहास में ऐसा प्रयास प्रथम बार देखने को मिला है। मेरा विश्वास है कि यह प्रयास नव रचनाकारों का मार्गदर्शन करने में विशेष सहायक सिद्ध होगा और साथ ही एक नयी परम्परा का सूत्रपात भी करेगा। पृष्ठ के उपलब्ध रिक्त स्थान में उसी रचनाकार के मुक्तक को समायोजित किया गया है और उसका भी शिल्प विधान विधिवत दिया गया है। गीतिकाओं और मुक्तकों के सुगठित शिल्प, सार्थक कथ्य और प्रखर सम्प्रेषण को देखते हुए लगता है कि कृति के दूसरे भाग का सम्पादन विशेष सतर्कता और परिश्रम के साथ किया गया है।
                  समग्रतः देखा जाये तो यह कृति वस्तुतः एक काव्यशाला है जिसके द्वारा कोई भी जिज्ञासु न केवल गीतिकाविधा को आत्मसात कर सकता है अपितु सामान्य काव्य कला में भी पारंगत हो सकता है !
समीक्षक : दिनेश कुशभुवनपुरी, सुल्तानपुर, उ.प्र.

'गीतिकालोक'- अद्वितीय संदर्भ काव्यानुभूतियाँ व अद्भुत गीतिका व छंद विधान

गीतिकालोक काव्य संग्रह- अद्वितीय संदर्भ काव्यानुभूतियाँ व अद्भुत गीतिका व छंद विधान
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समीक्ष्य कृति – गीतिकालोक, कृतिकार – ओम नीरव

(पृष्ठ – 280, पेपर कवर, मूल्य – 300 रूपये, संपर्क – 07526063802)
7 अप्रैल 2016 को सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश में अवनीश त्रिपाठी जी द्वारा आयोजित कवितालोक के सार्द्धशतकीय महाकुम्भ में 'गीतिकालोक' का लोकार्पण हुआ।
सार्द्धशतकीय अखिल भारतीय कविता लोक के महाकुम्भ का हिस्सा बनना मेरे लिये परम सौभाग्य का विषय है । इस अवसर पर लोकार्पण हुये गीतिकालोक संग्रह में मेरी भी दो गीतिकाओं व एक मुकतक को स्थान मिलने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

माननीय ओम नीरव जी के कुशल मार्गदर्शन में प्रकाशित हुआ यह संकलन हिंदी साहित्य में एक भावी मील का पत्थर प्रमाणित होगा ।
यह मात्र एक गीतिका संग्रह न हो कर गीतिका , छंद विधान व गजल की अनुपम निर्देशिका है जिसे हम जैसे नवोदित आवश्यकता पड़ने पर प्रयुक्त कर सकते हैं । 
अभी पिछले दिनों एक छंद विशेष के बारे में कुछ संशय हुआ तुरंत गीतिकालोक संग्रह से संबंधित जानकारी उपलब्ध हो गई ।
यह संग्रह अपने आप में संपूर्ण निर्देशिका है जिसे आने वाले समय में गीतिका सृजन के लिये सहितयकारों को आवश्यक मार्गदर्शन व जानकारी सहज ही उपलब्ध हो सकेगी।

माननीय ओम नीरव जी ने उपयुक्त उदाहरणों द्वारा छंदों के विधान की जो जानकारी दी है वह भी अपने आप में अद्वितीय है । उनकी कर्मठता ,सृजन शीतला , रचनाधर्मिता को हृदय से नमनहै ।
अविभूत हूँ कि इस महान गीतिका संग्रह में मुझे भी इस ऐतिहासिक प्रयास का हिस्सा बनने 
का सुअवसर मिला।

कवितालोक परिवार के संरक्षक माननीय ओमनीरव जी को इस अद्वितीय सृजन व सभी रचनाकारों को इस महान संग्रह का हिस्सा बनने के लिये कोटि कोटि अभिनंदन व बधाई।
यह समर्पण भाव ही है जो इस तरह के भव्य आयोजन को ऊँचाई के शिखर तक पहुँचाता है ।
सादर नमन व आभार इस अदभुत अनुष्ठान के लिये माननीय ओम नीरव जी। 

        
                                                                                                                                                          सूक्षम लता महाजन 
                                                                                                                                                                         नोएडा 

'गीत और नवगीत के सन्धि हस्ताक्षर धीरज श्रीवास्तव'--डॉ० मंजु श्रीवास्तव

"मेरे गाँव की चिनमुनकी'' 
पेज-१४४ मूल्य - २५०  प्रकाशन - शुभांजलि प्रकाशन  कानपुर 
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गीत और नवगीत के सन्धि हस्ताक्षर के रूप में कवि श्री धीरज श्रीवास्तव जी का गीत संग्रह 'मेरे गाँव की चिनमुनकी 'नवगीतों की श्रृंखला में अवश्य मील का पत्थर साबित होगा,एेसा मेरा विश्वास है।

सीधे सादे सहज व्यतित्व के धनी कवि धीरज जी के सरल व्यतित्व की पूर्ण छाप उनके कृतित्व पर दिखाई पड़ती है।
उन्होने वातानुकूलित हवेली में बैठकर गीतों की रचना नहीं की,बल्कि जेठ की तपती दुपहरी में तपकर,पूस की ठिठुरती ठंड़ में सिहर -सिहर कर सृजन को वाणी दी है।उन्होंने गीतों में गाँव को नहीं रचा है वरन ग्रामीण जीवन को गीतों में जिया है।संग्रह में वर्णित छोटा सा गाँव भारत के समस्त गाँवों का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
उनके भावों में संप्रेषणीयता है,कथ्य में प्रबल प्रवाह है जिसमें डुबकी लगाता, डूबता-उतराता पाठक दर्शन की उन ऊँचाइयों तक पहुँच जाता है जहाँ कवि का अन्तर्मन 'स्थिरता' प्राप्त करना चाहता है।मोती जैसे भावों से भरी इस बहुमूल्य पिटारी में गरीबी, दहेज, साम्प्रदायिक दंगे, प्रदूषित होती हुई गंगा की परवाह करता हुआ रचनाकार अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन भी बखूबी कर पाया है।
कलरात जब मैं इस गीत संग्रह को पढ़ने बैठी तो पता ही नहीं चला कब समाप्त हो गया।मैं स्तब्ध थी।संयत होने पर मैं उस गाँव के बीच खड़ी थी जहाँ मेरे इर्द -गिर्द कवि के कथित पात्रों की चहल-पहल थी।एक ओर बिना नील का कुर्ता पहने रामपाल,सीधे सरल बड़कन के खेत पर कब्जा कर अट्टाहास करता बुझावन,पतीली में खौलती दाल के सामने बैठी विपन्नताओं की मार झेलती युवती,परदेशी झल्लर को मिसकॉल देती रमलिया, सामाजिक विद्रूपताओं का दर्द अपने सीने में छिपाये,वेदना की प्रतिमूर्ति बनी अनब्याही बेटी कोने मे सहमी सी खड़ी थी।अम्मा की बहू सज-संवर कर इठला रही थी।राधे बाबा के बेटे के कुसंग में बिगड़े छोटे भाई की चिन्ता करता बड़ा भाई,जमीन के लिए एक दूसरे केे सिर फोड़ते लोग ,सभी बारी बारी से सामने आ रहे थे।साथ ही सेठ ,साहूकार,नेता, दरोगा और सरपंच द्वारा सतायी गई मुन्नी बाई अश्रुपूरित नेत्रो से मेरे सामने खड़ी थी। वहीं दूसरी ओर पायल छनकाती, कंगन खनकाती,रूठती-मनाती,रार-मनुहार करती, खिलखिलाकर प्रिय का आलिंगन करती,जूही-कचनार सीऔर सावन की रिमझिम बौछार सी,अल्हण यौवन की मलिका"चिनमुनकी" मेरे सामने बैठी मंद-मंद मुस्करा रही थी।
मैं किंकर्तव्यमूढ़ सी चलचित्र की भाँति सजीव चित्रों को रात्रि भर देखती रही।प्रात कब हुई ,पता ही नहीं चला। पक्षियों के कलरव से मेरी तन्द्रा टूटीऔर मैं वर्तमान में लौट आई।
कुछ एेसा है कवि धीरज श्रीवास्तव जी की सर्जना का जादू !जिसमें शब्द गायब हो जाते हैं,भाव 'चित्र ' बनकर सजने -सँवरने लगते हैं तथा पाठक ठगा सा रह जाता है।.....
अंत में दोशब्दों में मैं बस इतना कहना चाहूंगी-कि कवि के मधुर गीतों में प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति एवं दर्शन की गंगा-यमुनी छवि उन्हेंश्रेष्ठ गीतकार के रूप में स्थापित करती है। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत उनके सुन्दर गीत 'भाव 'जगाते हैं ,'शब्द 'चित्र बनाते हैं और हृदय की गहराइयों में उतर कर अनायास ही गुनगुनाने को विवश कर जाते हैं।
ऐसे महान कवि को मेरा शत-शत नमन
डॉ० मंजु श्रीवास्तव
कानपुर