मंगलवार, 22 नवंबर 2016

मेरे गाँव की चिनमुनकी : समाज को दर्पण दिखाते गीतों का संग्रह

समीक्ष्य कृति – गीत संग्रह ‘मेरे गाँव की चिनमुनकी’
कृतिकार – धीरज श्रीवास्तव, चलभाष - 8858001681
समीक्षक – ओम नीरव, चलभाष- 7526063802, ईमेल neeravom1948@gmail.com
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       छंदमुक्त कविता ने जहाँ एक ओर लेखनी को अभिव्यक्ति के अधिक अवसर प्रदान किये हैं वहीं दूसरी ओर जाने-अनजाने छंदबद्ध कविता को क्षति पहुँचाने का कार्य भी किया है। अनेक रचनाकार छंदबद्धता को अभिव्यक्ति में बाधक बताकर न केवल अपनी शिल्पगत दुर्बलताओं को छिपा रहे हैं अपितु अपनी दुर्बलताओं को नवीन विधा के रूप में महिमामंडित करते भी देखे गये हैं। छंदमुक्त कविता के अस्तित्व को छांदस कविता की उपेक्षा या भर्त्सना के रूप में प्रस्तुत करने का चलन-सा हो गया है। यह छांदस काव्य विधाओं के लिए संकटकालीन स्थिति है। ऐसी त्रासद स्थिति में यदि कोई छंदबद्ध, भावप्रवण और सरस गीतों का संकलन प्रकाश में आता है तो लगता है जैसे जेठ की तपती दुपहरी में कोई पवन का शीतल झोंका तन-मन को रस-सिक्त कर गया हो। कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही है गीतों के लड़ैते राजकुमार धीरज श्रीवास्तव का गीत संग्रह ‘मेरे गाँव की चिनमुनकी’ को पढ़कर।
      धीरज जी एक लंबे अंतराल से छांदानुशासित गीतों के सृजन में संलग्न रहे हैं। उनके गीतों में कोमल भावनाओं का असीम सागर लहराता हुआ दिखाई देता है और इस सागर की उद्दाम तरंगों को शिल्पबद्ध करने की विशिष्ट क्षमता उनकी लेखनी में विद्यमान है। इसप्रकार भाव और शिल्प दोनों का मनोहारी समागम उनके गीतों को उत्कर्ष प्रदान करता है। अधिकांश गीतों में गाँव की माटी को भारतीय संस्कृति के सलिल में सान कर लोक भाषा की हथेली से आकार दिया गया है और फिर छांदस शिल्प के  आवे में तपाकर लोकार्पित किया गया है। एक झलक दृष्टव्य-
क्या अब भी रस्ते कच्चे हैं/ जिनपर हम आते जाते थे?
क्या पेड़ अभी है जामुन का/ हम बैठ जहाँ सुस्ताते थे? 
क्या झूला अब भी पड़ता है/ उस हरीराम की बगिया में?
क्या सभी सितारे टँके हुए/ हैं अभी तलक उस अँगिया में?
      गीत के मुख्य अंग होते हैं – मुखड़ा, टेक, अंतरे, पूरक पंक्तियाँ, गेयता, तुकांत विधान, भावप्रवणता। यदि ‘मेरे गाँव की चिनमुनकी’ के गीतों की बुनावट को देखा जाये तो गीत का अंग-प्रत्यंग पुष्ट दिखाई देता है। धीरज जी मुखड़े के चुनाव में विशेष सजग दिखाई देते हैं। उनके प्रत्येक गीत का मुखड़ा कथ्य की सटीक प्रस्तावना करने के साथ अंतरों को पढ़ने के लिए प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न करता है। मुखड़े की उस पंक्ति को टेक के रूप में लिया गया है जो अंतरे की पूरक पंक्ति साथ सटीकता से भाव साम्य स्थापित करती हो। गीतों के अंतरे इस कौशल के साथ बुने गए हैं कि प्रारम्भिक पंक्तियों में कथ्य का संधान और पूरक पंक्ति में प्रहार के साथ विलक्षण भावप्रवणता उत्पन्न की गयी है। इस दृष्टि से एक गीत का मुखड़ा और एक अंतरा दृष्टव्य है, 
लड़ा उम्र भर जेठ निरंतर/ पूस करे जी भर मनमानी।
उस पर बैठा मीट हृदय में/ उलच रहा आँखों का पानी। (मुखड़ा)
अंगारों पर रात काटकर/ जैसे तैसे खड़े हुए हैं।
शूलों पर ही चलते-चलते/ हम दुनियाँ में बड़े हुए हैं।
(अंतरे की प्रारम्भिक पंक्तियाँ)
रोटी तक को बचपन तरसा/ खूब हुई हैरान जवानी।
(अंतरे की पूरक पंक्ति)
उस पर बैठा मीत हृदय में/ उलच रहा आँखों का पानी। (टेक)
      गीत की गेयता का नियामक होता है – कोई न कोई छंद, जिसे हम गीत का आधार छंद कह सकते हैं। इस कृति के गीतों में जिन छंदों का प्रयोग किया गया है वे उदाहरण सहित इसप्रकार हैं - (1) चौपाई छंद (16 मात्रा, अंत में गाल वर्जित) मन का है विश्वास तुम्हीं से। (2) पदपादाकुलक (16 मात्रा, आदि में गुरु अनिवार्य, उस गुरु के बाद यदि एक त्रिकल हो तो उसके बाद दूसरा त्रिकल अनिवार्य) लिख रहा पत्र मैं आज तुम्हें (3) लावणी (30 मात्रा, 16,14 पर यति, अंत में वाचिक गुरु) अम्मा तुन तो चली गयीं पर, लाल तुम्हारा झेल रहा। (4) विष्णुपद (26 मात्रा, 16,10 पर यति, अंत में गुरु) हुई जेठ की धूप ज़िंदगी, जलता रहता हूँ। (5) सरसी (27 मात्रा, 16,11 पर यति, अंत में गाल) भाग रही है बचती-बचती, घिरी हुई है आग। (6) गीतिका (मापनी – 2122 2122 2122 212) कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले। (7) आनंदवर्धक (मापनी- 2122 2122 212) ये उदासी प्राण लेकर जा रही। (8) मधुमालती (मापनी- 2122 2122) हो सके तो माफ करना।
      गीतों में छंदों को सटीकता से साधने के कारण गेयता कहीं भी बाधित नहीं हुई है। कुछ गीतों में एक से अधिक छंदों का सुरुचिपूर्ण सम्मिश्रण है जिसमें लय की निरंतरता का विशेष ध्यान रखा गया है जैसे चौपाई के साथ लावणी, चौपाई के साथ विष्णुपद, विष्णुपद के साथ लावणी, सरसी के साथ लावणी, आनंदवर्धक के साथ गीतिका और मधुमालती के साथ गीतिका। उदाहरणार्थ इस गीत के अंतर्गत सरसी छंद में निबद्ध मुखड़ा और लावणी छंद में निबद्ध अंतरा मिलकर लयात्मक निरंतरता के साथ सम्मोहक गेयता उत्पन्न करते हैं-
पुरवाई के संग आ रही/ भीनी-भीनी गंध।
महक उठा है तुम्हें यादकर/ फिर से वो संबंध। 
जाने कितने दाँव लगाये/ बहुत लड़े पर हार गये।
मंडित मस्जिद गुरुद्वारों में/ जाने कितनी बार गये।
कर पाये पर नहीं वक्त से/ हम कोई अनुबंध।
      गीतों की भाषा व्यावहारिक खड़ी बोली हिन्दी के साथ-साथ वस्तुतः कवि के हृदय की भाषा है जो पाठक-मन की गहराई तक सीधे उतरती चली जाती है। माधुर्य एवं प्रसाद गुणों से युक्त गीतों के इस संग्रह में मुख्यतः विप्रलंभ शृंगार है जो आकाशीय न होकर जीवन के यथार्थ धरातल पर पल्लवित होता है जहाँ पर दया, करुणा, क्षमा, ममता जैसे सकारात्मक भावों की तरलता के साथ छल, प्रपंच, गरीबी, शोषण, व्यभिचार, पाशविक क्रूरता जैसे नकारात्मक भावों की विद्रूपता भी कम नहीं है तथा कुछ गीत करुण रस प्रधान हैं जिनमें युगीन विसंगतियों से पीड़ित मानवता का बिम्ब बड़ी यथार्थता के साथ उकेरा गया है। इसकी एक झलक- 
यहाँ पहुँच से बिलकुल बाहर/ आलू का है दाम हुआ।
सूखे लहसुन अरमानों के/ और प्याज बदनाम हुआ।
आसमान में रोज खोंटती/ बस बथुए का साग सखी।
दाल खौलती है चूल्हे मैं/ जले पतीली आग सखी।
      धीरज जी के गीतों में नये-नये प्रतीकों का प्रयोग कर अतीव मनोहारी बिम्ब योजनाएँ प्रस्तुत की गयी है जिनका उद्देश्य नवीनता के आग्रह को पूरा करना मात्र न होकर संप्रेषणीयता में अभिवृद्धि करना ही है।  बिम्ब-विधान का एक उदाहरण -
लड़ा उम्र भर जेठ निरंतर/ पूस करे जी भर मनमानी।
उस पर बैठा मीत हृदय में/ उलच रहा आंखों का पानी।
      कृति के गीतों में गीतकार के संवेदनशील हृदय का बिम्ब सहज ही देखा जा सकता है-
मुखिया जी सब जान रहे थे/ किसने अस्मत लूटी थी।
आउट बिचारी क्योंकर आखिर/ अंदर से वह टूटी थी।
देशी दारू थी पहले ही/ मछली तली गयी।
देख गाँव का भ्रष्ट आचरण/ कमली चली गयी।
      कवि ने गीत की मिठास में सना जन-जागरण का संदेश भी बड़ी कुशाग्रता से संप्रेषित किया है-
दारू पीकर चौकीदारी/ जाने कितने साल किया।
फूट गयी पर पोल एक दिन/ कर्मों ने कंगाल किया।
हाथ नहीं रह गयी नौकरी/ बैठा सिर खुजलाए अब।
फूटी कौड़ी नहीं जेब में/ किस से ठग कर लाये अब।
      इस कृति में गीतों के संग्रह से पूर्व प्रस्तुत अवनीश त्रिपाठी का आलेख समीक्षा साहित्य की एक अनमोल धरोहर है। उनके इस कथ्य से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि ‘धीरज जी मानव मन की कोमलता के पारंगत पारखी है’।
      समग्रतः धीरज श्रीवास्तव जी के गीतों का यह संग्रह ‘ मेरे गाँव की चिनमुनकी’ पुनः पुनः पठनीय और संग्रहणीय है। मेरा विश्वास हैं यह कृति हिन्दी काव्य साहित्य में यथेष्ट सम्मान प्राप्त करेगी और नव गीतकारों के सटीक सृजन की प्रेरणा स्रोत बनेगी।
- ओम नीरव
संस्थापक अध्यक्ष ‘कवितालोक’, लखनऊ
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मेरे गाँव की चिनमुनकी : समाज को दर्पण दिखाते गीतों का संग्रह

समीक्ष्य कृति – गीत संग्रह ‘मेरे गाँव की चिनमुनकी’
कृतिकार – धीरज श्रीवास्तव, चलभाष - 8858001681
समीक्षक – ओम नीरव, चलभाष- 7526063802, ईमेल neeravom1948@gmail.com
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      छंदमुक्त कविता ने जहाँ एक ओर लेखनी को अभिव्यक्ति के अधिक अवसर प्रदान किये हैं वहीं दूसरी ओर जाने-अनजाने छंदबद्ध कविता को क्षति पहुँचाने का कार्य भी किया है। अनेक रचनाकार छंदबद्धता को अभिव्यक्ति में बाधक बताकर न केवल अपनी शिल्पगत दुर्बलताओं को छिपा रहे हैं अपितु अपनी दुर्बलताओं को नवीन विधा के रूप में महिमामंडित करते भी देखे गये हैं। छंदमुक्त कविता के अस्तित्व को छांदस कविता की उपेक्षा या भर्त्सना के रूप में प्रस्तुत करने का चलन-सा हो गया है। यह छांदस काव्य विधाओं के लिए संकटकालीन स्थिति है। ऐसी त्रासद स्थिति में यदि कोई छंदबद्ध, भावप्रवण और सरस गीतों का संकलन प्रकाश में आता है तो लगता है जैसे जेठ की तपती दुपहरी में कोई पवन का शीतल झोंका तन-मन को रस-सिक्त कर गया हो। कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही है गीतों के लड़ैते राजकुमार धीरज श्रीवास्तव का गीत संग्रह ‘मेरे गाँव की चिनमुनकी’ को पढ़कर।
      धीरज जी एक लंबे अंतराल से छांदानुशासित गीतों के सृजन में संलग्न रहे हैं। उनके गीतों में कोमल भावनाओं का असीम सागर लहराता हुआ दिखाई देता है और इस सागर की उद्दाम तरंगों को शिल्पबद्ध करने की विशिष्ट क्षमता उनकी लेखनी में विद्यमान है। इसप्रकार भाव और शिल्प दोनों का मनोहारी समागम उनके गीतों को उत्कर्ष प्रदान करता है। अधिकांश गीतों में गाँव की माटी को भारतीय संस्कृति के सलिल में सान कर लोक भाषा की हथेली से आकार दिया गया है और फिर छांदस शिल्प के  आवे में तपाकर लोकार्पित किया गया है। एक झलक दृष्टव्य-
क्या अब भी रस्ते कच्चे हैं/ जिनपर हम आते जाते थे?
क्या पेड़ अभी है जामुन का/ हम बैठ जहाँ सुस्ताते थे? 
क्या झूला अब भी पड़ता है/ उस हरीराम की बगिया में?
क्या सभी सितारे टँके हुए/ हैं अभी तलक उस अँगिया में?
      गीत के मुख्य अंग होते हैं – मुखड़ा, टेक, अंतरे, पूरक पंक्तियाँ, गेयता, तुकांत विधान, भावप्रवणता। यदि ‘मेरे गाँव की चिनमुनकी’ के गीतों की बुनावट को देखा जाये तो गीत का अंग-प्रत्यंग पुष्ट दिखाई देता है। धीरज जी मुखड़े के चुनाव में विशेष सजग दिखाई देते हैं। उनके प्रत्येक गीत का मुखड़ा कथ्य की सटीक प्रस्तावना करने के साथ अंतरों को पढ़ने के लिए प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न करता है। मुखड़े की उस पंक्ति को टेक के रूप में लिया गया है जो अंतरे की पूरक पंक्ति साथ सटीकता से भाव साम्य स्थापित करती हो। गीतों के अंतरे इस कौशल के साथ बुने गए हैं कि प्रारम्भिक पंक्तियों में कथ्य का संधान और पूरक पंक्ति में प्रहार के साथ विलक्षण भावप्रवणता उत्पन्न की गयी है। इस दृष्टि से एक गीत का मुखड़ा और एक अंतरा दृष्टव्य है, 
लड़ा उम्र भर जेठ निरंतर/ पूस करे जी भर मनमानी।
उस पर बैठा मीट हृदय में/ उलच रहा आँखों का पानी। (मुखड़ा)
अंगारों पर रात काटकर/ जैसे तैसे खड़े हुए हैं।
शूलों पर ही चलते-चलते/ हम दुनियाँ में बड़े हुए हैं।
(अंतरे की प्रारम्भिक पंक्तियाँ)
रोटी तक को बचपन तरसा/ खूब हुई हैरान जवानी।
(अंतरे की पूरक पंक्ति)
उस पर बैठा मीत हृदय में/ उलच रहा आँखों का पानी। (टेक)
      गीत की गेयता का नियामक होता है – कोई न कोई छंद, जिसे हम गीत का आधार छंद कह सकते हैं। इस कृति के गीतों में जिन छंदों का प्रयोग किया गया है वे उदाहरण सहित इसप्रकार हैं - (1) चौपाई छंद (16 मात्रा, अंत में गाल वर्जित) मन का है विश्वास तुम्हीं से। (2) पदपादाकुलक (16 मात्रा, आदि में गुरु अनिवार्य, उस गुरु के बाद यदि एक त्रिकल हो तो उसके बाद दूसरा त्रिकल अनिवार्य) लिख रहा पत्र मैं आज तुम्हें (3) लावणी (30 मात्रा, 16,14 पर यति, अंत में वाचिक गुरु) अम्मा तुन तो चली गयीं पर, लाल तुम्हारा झेल रहा। (4) विष्णुपद (26 मात्रा, 16,10 पर यति, अंत में गुरु) हुई जेठ की धूप ज़िंदगी, जलता रहता हूँ। (5) सरसी (27 मात्रा, 16,11 पर यति, अंत में गाल) भाग रही है बचती-बचती, घिरी हुई है आग। (6) गीतिका (मापनी – 2122 2122 2122 212) कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले। (7) आनंदवर्धक (मापनी- 2122 2122 212) ये उदासी प्राण लेकर जा रही। (8) मधुमालती (मापनी- 2122 2122) हो सके तो माफ करना।
      गीतों में छंदों को सटीकता से साधने के कारण गेयता कहीं भी बाधित नहीं हुई है। कुछ गीतों में एक से अधिक छंदों का सुरुचिपूर्ण सम्मिश्रण है जिसमें लय की निरंतरता का विशेष ध्यान रखा गया है जैसे चौपाई के साथ लावणी, चौपाई के साथ विष्णुपद, विष्णुपद के साथ लावणी, सरसी के साथ लावणी, आनंदवर्धक के साथ गीतिका और मधुमालती के साथ गीतिका। उदाहरणार्थ इस गीत के अंतर्गत सरसी छंद में निबद्ध मुखड़ा और लावणी छंद में निबद्ध अंतरा मिलकर लयात्मक निरंतरता के साथ सम्मोहक गेयता उत्पन्न करते हैं-
पुरवाई के संग आ रही/ भीनी-भीनी गंध।
महक उठा है तुम्हें यादकर/ फिर से वो संबंध। 
जाने कितने दाँव लगाये/ बहुत लड़े पर हार गये।
मंडित मस्जिद गुरुद्वारों में/ जाने कितनी बार गये।
कर पाये पर नहीं वक्त से/ हम कोई अनुबंध।
      गीतों की भाषा व्यावहारिक खड़ी बोली हिन्दी के साथ-साथ वस्तुतः कवि के हृदय की भाषा है जो पाठक-मन की गहराई तक सीधे उतरती चली जाती है। माधुर्य एवं प्रसाद गुणों से युक्त गीतों के इस संग्रह में मुख्यतः विप्रलंभ शृंगार है जो आकाशीय न होकर जीवन के यथार्थ धरातल पर पल्लवित होता है जहाँ पर दया, करुणा, क्षमा, ममता जैसे सकारात्मक भावों की तरलता के साथ छल, प्रपंच, गरीबी, शोषण, व्यभिचार, पाशविक क्रूरता जैसे नकारात्मक भावों की विद्रूपता भी कम नहीं है तथा कुछ गीत करुण रस प्रधान हैं जिनमें युगीन विसंगतियों से पीड़ित मानवता का बिम्ब बड़ी यथार्थता के साथ उकेरा गया है। इसकी एक झलक- 
यहाँ पहुँच से बिलकुल बाहर/ आलू का है दाम हुआ।
सूखे लहसुन अरमानों के/ और प्याज बदनाम हुआ।
आसमान में रोज खोंटती/ बस बथुए का साग सखी।
दाल खौलती है चूल्हे मैं/ जले पतीली आग सखी।
      धीरज जी के गीतों में नये-नये प्रतीकों का प्रयोग कर अतीव मनोहारी बिम्ब योजनाएँ प्रस्तुत की गयी है जिनका उद्देश्य नवीनता के आग्रह को पूरा करना मात्र न होकर संप्रेषणीयता में अभिवृद्धि करना ही है।  बिम्ब-विधान का एक उदाहरण -
लड़ा उम्र भर जेठ निरंतर/ पूस करे जी भर मनमानी।
उस पर बैठा मीत हृदय में/ उलच रहा आंखों का पानी।
      कृति के गीतों में गीतकार के संवेदनशील हृदय का बिम्ब सहज ही देखा जा सकता है-
मुखिया जी सब जान रहे थे/ किसने अस्मत लूटी थी।
आउट बिचारी क्योंकर आखिर/ अंदर से वह टूटी थी।
देशी दारू थी पहले ही/ मछली तली गयी।
देख गाँव का भ्रष्ट आचरण/ कमली चली गयी।
      कवि ने गीत की मिठास में सना जन-जागरण का संदेश भी बड़ी कुशाग्रता से संप्रेषित किया है-
दारू पीकर चौकीदारी/ जाने कितने साल किया।
फूट गयी पर पोल एक दिन/ कर्मों ने कंगाल किया।
हाथ नहीं रह गयी नौकरी/ बैठा सिर खुजलाए अब।
फूटी कौड़ी नहीं जेब में/ किस से ठग कर लाये अब।
      इस कृति में गीतों के संग्रह से पूर्व प्रस्तुत अवनीश त्रिपाठी का आलेख समीक्षा साहित्य की एक अनमोल धरोहर है। उनके इस कथ्य से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि ‘धीरज जी मानव मन की कोमलता के पारंगत पारखी है’।
      समग्रतः धीरज श्रीवास्तव जी के गीतों का यह संग्रह ‘ मेरे गाँव की चिनमुनकी’ पुनः पुनः पठनीय और संग्रहणीय है। मेरा विश्वास हैं यह कृति हिन्दी काव्य साहित्य में यथेष्ट सम्मान प्राप्त करेगी और नव गीतकारों के सटीक सृजन की प्रेरणा स्रोत बनेगी।
- ओम नीरव
संस्थापक अध्यक्ष ‘कवितालोक’, लखनऊ
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