सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

संजीव मिश्र जी के मनभावन 6 गीत 【काव्य शिल्पी】


           ऋतुराज
आमंत्रण ऋतुराज का प्रिय स्वीकार करो।
धूल हटा दर्पण की फिर श्रंगार करो।
महको जैसे सुमन,कि तुम पर गीत लिखूं॥
पवन वसंती लालायित तन छूने को,
कांधे से अपने आंचल को ढलका दो।
तृषित नयन मेरे देखें अपलक तुम को,
रूप की गागर से मधुरस को छलका दो।
पी मतवाला हो जाऊं इक प्याला दो।
प्रण प्रिये अपने अधरों की हाला दो।
मिटे प्रीत की अगन,कि तुम पर गीत लिखूं॥
रंग फागुनी बिखरे भू से अंबर तक,
इन रंगों को अपने आंचल में भर लो।
हथेलियों पर रंग सजाकर मेंहदी के,
माथे अपने सिंदूरी सूरज धर लो।
नीरस जीवन को अपना आलिंगन दो।
जागे एक उमंग प्रियतमे फागुन दो।
रंग भरी दो छुअन,कि तुमपर गीत लिखूं॥"
           ●●●●●●

  गाय बेंच हम आये
       **************
"गौमाता कह कह कर जिसके,
    चरणों शीश नवाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये॥
सागर मंथन से निकलीं वह,
    कामधेनु कहलायीं।
जन जन की वह पूज्या हो कर,
ऋषियों के मन भायीं।
जिसके अंग अंग में आकर,
    सारे देव समाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये॥
जसुदा नंदन किशन कन्हैया,
   माखन के मतवाले।
नंद बबा के अगनित गैय्या,
  वह उनके रखवाले।
गौसेवा करके मनमोहन,
   हैं गोपाल कहाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये॥
दूध दही माखन देकर भी,
     हमसे क्या है पाया।
बृद्ध हुयीं जब गौमाता तब,
     हमने है बिसराया।
चिल्लाये फिर गली गली हम,
   गौहत्या रुक जाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये।
    अन्न प्रदाता
         *********
     
"सरकारों की बाजारों की,
      हर मनमानी को सहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥
कितने ही स्वप्न संजोये जब,
    लेकर अनाज बाज़ार गया।
आधे दामों में बिकी फसल,
     वह अपना सबकुछ हार गया।
हर स्वप्न द्रवित हो कर उस के,
      दोनों नयनों से बहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥
मन ही मन अपने सोंच रहा,
      क्या अपनों को बतलायेगा।
कैसे ब्याहेगा बिटिया को,
       बेटा कैसे पढ़ पायेगा।
जब जब देखे वह अपनों को,
       उस के अंतर कुछ ढहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥
धीरे धीरे सब भूल गया,
      फिर से जा पहुँचा खेतों पर।
फिर मेहनत वह दिनरात करे,
      कुछ स्वप्न नये नयनों में धर।
हर बार छला जाता फिरभी,
       सपनों में जीता रहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥"
      **************
       
     बेटियां
    :::::::::::::::::::::
"कोमल पंखों से छू लेंगी,
       ये अंवर उड़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर॥
भाग्यवान वह जिसके घर में,
  गूंजे बेटी की किलकारी।
बेटा है यदि घर का दीपक,
   बेटी आंगन की फुलवारी।
हरपल रहतीं साथ हमारे,
         सुख दुख से जुड़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर॥
इनमें भी है अंश हमारा,
   इनको मत कम करके जानो।
लता साइना किरन सरीखे,
    इनके सपनों को पहचानो।
सच कर सकतीं हैं हर सपना,
      ये भी लिख पढ़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर ॥
जग जननी ये शक्ति स्वरूपा,
    इनके अंतर मातु भवानी।
सीता अनसुइया सी पावन,
   लक्ष्मी बाई सी मर्दानी।
सावित्री बन छीनें पति को,
       ये यम से लड़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर ॥"


   पति परमेश्वर
       ***********
       
"बाहर घूमें सीना ताने,
      घर में सहमे  से रहते हैं।
ऐसे ही प्राणी को जग में,
     पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
पत्नी के कहने पर बैठें,
    पत्नी कह दे तो उठ जायें।
पत्नी कह दे तो व्रत रखलें,
    पत्नी के कहने पर खायें।
अधरों पर हैं मुस्कान लिये,
     अंदर से आंसू बहते हैं।
ऐसे प्राणी को ही जग में,
   पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
इतनी औकात कहां इनमें,
    टीवी का चैनल बदल सकें।
कब इतना साहस मर्जी से,
    घर के बाहर भी निकल सकें।
कितने ही स्वप्न सलौने से,
     इनकी आंखों से ढहते हैं।
ऐसे ही प्राणी को जग में,
     पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
काला सफेद उल्टा सीधा,
   जो होता हो वो होने दे।
चाहें सूरज सर चढ़ आये,
    पत्नी सोयी हो सोने दे।
चुपचाप बिचारे जीवन भर,
     हर जुल्मोसितम को सहते हैं।
ऐसे ही प्राणी को जग में,
     पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
       ●●●●●●●●●
      
      नारी जीवन
        -------------------
"युग बदले पर बदल न पाया,
     नारी का इतिहास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
     हर युग में बनबास॥
युगों युगों से जो घेरे थीं,
     अब भी वही व्यथायें हैं।
कदम कदम पर बेबस करतीं,
    अगनित कुटिल प्रथायें हैं।
जब आगे बढना चाहे तो,
    मिलता है उपहास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
    हर युग में बनबास॥
अनजाने भय को लेकर वह,
     सहम सहम जीती पल पल।
कौन कहां कब मैला करदे,
     गंगा सा पावन आंचल।
गांव गांव में शहर शहर में,
     टूट रहा विश्वास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
     हर युग में बनबास॥
मातृशक्ति हो निर्भय जग में,
      हम सबसे सम्मान मिले।
उसके नयनों के सपनों को,
     एक नयी पहचान मिले।
मुरझाये अब फूल न कोई,
      मिलकर करें प्रयास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
     हर युग में बनबास॥"

"परिचय"----
नाम - संजीव मिश्रा
पिता - स्व. श्री कृष्ण चन्द्र मिश्रा
माता- स्व. श्रीमती रामगुनी
पत्नी - श्रीमती शशि मिश्रा
पुत्री- कु. सोनाक्षी मिश्रा
पता - 359 - नयी बस्ती -G G I C के पीछे - पीलीभीत(उ. प्र.) पिनकोड - 262001
संप्रति मोदी नेचुरल्स लि. मे कर्यरत।
गीत विधा में लेखन।
गीतसंग्रह " राजदुलारी" प्रकाशनाधीन।
बिभिन्न पत्रिकाओं में गीतों का प्रकाशन।
दूरदर्शन एवं आकाशवाणी गीतों का प्रसारण।
विशेष टिप्पणियाँ------
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राहुल द्विवेदी स्मित:--------
आज आदरणीय संजीव मिश्र जी के गीतों से परिचय प्राप्त करने का समय है ।
आदरणीय संजीव जी मेरे पसंदीदा गीतकारों में हैं । आप के गीत आपके व्यक्तित्व का स्पष्ट प्रदर्शन करते हैं ।
आपके गीतों पर कुछ भी लिखना सूरज को दिया दिखाने सा होगा ।
बस आपको गीतों का आनंद लेना चाहता हूँ ।
नमन आपको व आपकी लेखनी को
विजय नारायण सिंह:-----
आदरणीय संजीव मिश्र सर के गीतों का रसास्वादन किया, बड़ा आनन्द आया ।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपसे व्यक्तिगत रूप से परिचित होने का अवसर मिला ।
मिश्र सर के गीतों मे भाव, लय, सुर और काव्य के अलावा जो मिठास भरी रहती है, वो एक परिपक्व गीतकार में ही हो सकती है ।
नमन आपकी प्रतिभा को, आपकी लेखनी को और ढेरों शुभकामनायें ॥
- विजय नारायण सिंह "बेरुका"
दिनेश पाण्डेय बरौंसा:-------
वाह्ह्ह्ह्ह् वाह्ह्ह्ह्ह् वाह्ह्ह्ह्ह्  आहा आपके गीतों के तो क्या कहने आदरणीय श्री आपके समस्त गीत उम्दा एवं सटीक शिल्पयुक्त भावों से भरपूर हैं जिन्हें पढ़कर मन भावबिभोर हो गया। आपको एवं सहृदय बधाई संग सादर नमन 
विनोद चन्द्र भट्ट गौचर: ------------

वाह्ह्ह्ह्ह्ह!!!
बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति।  बेहतरीन गीत!भाव सम्प्रेषण लाजवाब है।
वाह!आदरणीय संजीव मिश्रा जी
आपकी भावाभिव्यक्ति को नमन!आपके गीतों से निश्चित ही मुझ जैसे नवागत रचनाकार को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
वाह्ह्ह्ह्ह!!!
आपको हार्दिक बधाई व मंगलकामनाएं।
     सादर नमन
अलोक मित्तल :--------
बहुत ही सुन्दर गीत कहे है आपने संजीव जी अलग अलग भावो को पिरोया है आपने
गऊ माता हम बेच आये .. बेहतरीन है
पतिपरमेश्वर क्या कहे सब का हाल एक जैसा है कोई कह देता कोई चुप सहन कर लेता ...लाजवाब
ऋतुराज ..बहुत सुन्दर
अन्न प्रदाता बहुत सुन्दर गीत किसानो का दर्द बखूबी लिखा आपने वाहह
बधाई आपको

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

संजू बाबा "बेनाम" की ग़ज़ल


कलम के मेरे हर अल्फ़ाज़  का इतना फ़साना था,
लिखूं मैं कुछ भी बस इक नाम तेरा यार आना था।

कि बाद-ए-हिज़्र मुझसे अश्क़ मेरे कह रहे हमदम,
मुझे भी  भूल  जाना था  तुझे भी  भूल  जाना था।

उड़ा कर  नींद मेरी  ख्वाब में  कहता था  आऊँगा,
न मिलने का सनम के रोज का अच्छा बहाना था।

सवालों पे  मेरे खामोश  क्यूँ संग - ए - खुदा  है तू,
नहीं  मालूम था  जो गर  तुझे मुझको  बताना था।

कहाँ तस्कीन मिलती दिलजलों को इस जमाने में,
सभी दर्द- ए -दिलों का मयकदे में बस ठिकाना था।

बता " बेनाम " कैसे  जीतता  मैं इस  जहां को जब,
लकीरों में  मेरी  लिक्खा  खुदी  से  हार  जाना  था।
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परिचय:--
नाम:- संजू बाबा "बेनाम"
पिता :- स्व श्री स्वामी नाथ मौर्य
माता - श्रीमती निर्मला देवी
जन्मतिथि :- ०५ / ०६ / १९८९
शिक्षा : स्नातक, अवध विश्वविद्यालय, फैज़ाबाद
संप्रति : प्राइवेट जॉब
पता : म नं २२८७/९, विवेकानंद नगर,
         सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश
संपर्क नं : 9839205494, 8115296666
ई मेल : sanjay.perfect100@gmail.com

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर का आलेख

        अवनीश त्रिपाठी के गीतों से गुजरते हुए
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     आदरणीय रामकिशोर दहिया जी के सौजन्य से संवेदनात्मक आलोक नवगीत विमर्श के मंच पर अवनीश त्रिपाठी के गीतों से गुजरते हुए भावनाओं के जिस निर्झर के छोर पर खड़ा हूँ ,वह अछोर है। अनंतिम है। जहाँ तक मेरी भौतिक  दृष्टि पहुँच पा  रही है,कह सकता हूँ कि इस कवि के हृदय-प्रपात की कल-कल रागिनी किसी विजन वन की रागिनी नहीं है । वह उस अधर की ओर उन्मुख होकर प्रवाहित है जो--
''प्यास/
अधरों पर हमारे/
छलछलाई रात भर."
है।
      इनके गीत 'नवगीत की परंपरा' के केवल बिंबधर्मी गीत भर नहीं हैं। ये गीत अपनी परंपरा के साथ-साथ अपने परिवेश के गीत भी हैं।गीत में नई पीढ़ी की पीड़ाएँ अपने -अपने पीढ़े पर बैठी युगीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्यम-देव का आह्वान करती हुई मिलती हैं-

'प्यास लेकर/
जी रही हैं/
आज समिधाएँ नई.
कुंड में पड़ने लगी हैं/
क्षुब्ध आहुतियाँ कई.'  
                 प्रदीर्घ कविता के कथ्य को अपने छोटे-से कलेवर में समेटे हुए है यह गीत। तार-तार होते आज़ादी के स्वर्णिम स्वप्न हों या स्वराज के आगमन के बाद से लेकर आज तक का (समकालीन) यथार्थ सब  के सब परिदृश्य  इस गीत में इतने गाढ़े रूप में अंतर्गुंफित हैं कि ठहरकर और सावधानी से न देखने पर वे हमारी दृष्टि को चौंधिया देते हैं।
                'क्षुब्ध आहुतियाँ ',धुएँ का मंत्र', 'छांव  के भी पाँव में छाले','थोथे  मुखौटे','वस्त्र के झीने झरोखे 'और उन झरोखों को 'टाँकती अवहेलना' जैसे प्रयोग नवगीत को उसके 'बिंबधर्मी 'चरित्र के साथ-साथ  प्रगति धर्मी भी बनाते हैं। यह परंपरा का समृद्धीकरण और नवीनी करण  दोनों है।जीवन की विद्रूपताओं का इतना सुंदर मानवीकरण और रूपकीकरण एक साथ देखकर मैं तो कवि की प्रतिभा से चमत्कृत हूँ। मैं तो पहले गीत में ही अटक गया हूँ । इतने गहरे संवेदन से बुने गीत को बिना गुने कैसे आगे बढ़ जाऊं । गीतकार के नवोदित और युवा होने की बात उसकी सर्जनात्मकता को किसी  भी तरह बिल्कुल प्रभावित नहीं करती। जिस अर्थ में प्रभावित भी करती है, वहाँ वह उसे ऊर्जा से अभिसिञ्चित करती हुई दिखती है।इस परिप्रेक्ष्य में यही कहना उचित होगा---
'तेजसानाम् वयःन  समीक्ष्यते ।'
        अगले गीत में भी यथार्थ ही मुखर है। यहाँ जीवन में घुलते अँधेरों का एहसास देखा जा सकता है-

''अँधियारे का रिश्ता लेकर /
द्वार खड़ी रातें/
ड्योढ़ी पर /
जलते दीपक की /
आस हुई अब कम।"
                   इतना ही नहीं यह अंधेरा  आँखों की रोशनी को डरा भी रहा है,जिसकी कंपकंपी भीतर तक समाई जा रही है -----
,"भूख किताबी /
बाँच रही अब /
चूल्हे का संवाद /
देह बुढ़ापे की लाठी पर/
काँपे अंतर्तम।"
                   तीसरे गीत में बेमानी होते शब्दों के प्रति गीतकार की संवेदना आदिकवि की परंपरा से  जोड़ कर उसे सीधे करुणा के उत्स पर ही खड़ाकर देती है-

"अर्थ भी गंभीर/
संवेदन लिए/
शब्द की अर्थी /
उठाकर चल दिए ।"
                        कुछ गीत अपने रूप और गंध दोनों को ही दोनों हाथों में लिए हुए गीत और नवगीत की देहरी पर खड़े हैं ।ये अपने पूर्ववर्ती यानी पारंपरिक गीत की देहरी को पार किए बिना ही नवगीत का संधि पत्र लहराते हुए उसकी नई इबारत लिखते हुए मिलते हैं।ये गीत अपनी सरलता और सहजता से भी अपने सम्मोहन में अटकाते हैं -

"सिसक रहा मन की सूली पर /
मृगछौना यह संवेदन /
कैसे दूर करे मृगतृष्णा /
कैसे त्यागे सम्मोहन।"
और ,
"रेत  भरे आँचल में अपने/
सावन की बेटी /
सूखे खेतों से कहती है /
अब खैरात नहीं ............
द्वार देहरी/
सुबह साँझ सब/
लगते हैं रूठे/
दिन का /
थोड़ा दर्द समझती/
ऐसी रात नहीं।"
                    दिनोंदिन संवेदन शून्य होते जाते समय में संवाद के अवसर समाप्त होते जा रहे हैं। हर ओर विवाद बढ़ रहे हैं।इसीलिए तो,---

"छलते संधि-समास पीर में/
रस के गाँव नहीं जुटते हैं।"

संवाद नहीं होगा तो विवाद बढ़ेगा ही। अतः उसकी चिंता को अक्षर-अक्षर समेटे छठे गीत में कवि मन सिर्फ उद्वेलित  भर ही  नहीं  है, वह यह उद्घोषणा भी करता है कि,---
"संवादों की अर्थी लेकर /आई नई सदी।"
              समकालीन जीवन सपनों और यथार्थ के संधि द्वार पर खड़ा है। लेकिन जिस संक्रांति द्वार पर वह खड़ा है उसकी दीवारें तक दुरभिसंधि  में संलग्न हैं। सपनों की  दूधिया चाँदनी की सुधा से नहलाने वाला सुधाकर ही चोर हो गया है-

अब चुराकर/
रात के सपने सजीले /
चाँद भी चुपचाप सोना चाहता है।
              यहाँ सपनों की हत्याएँ करने वाला क्रूर समय अपने रक्त रंजित हाथ लेकर बड़े निर्लज्ज भाव से हमारे स्वागत में खड़ा है---

सहज नहीं /
उद्बोधन जिनके  
टूट गईं सारी सीमाएं..............
फिर हठीला/
ज्ञान रसवंती नदी में/
रक्तरंजित हाथ धोना चाहता है।"
          यथार्थ के अँधेरों से लगातार हाथापाई करता हुआ गीतकार इस गीत तक आते-आते आखिरकार उस  दमघोंटू धुंध और धुएँ से बाहर निकल ही आता है। इस गीत में चोरी हो गए सपनों वाली रात से निजात पाकर वह ऐसी सुहानी रात तक सफर तय कर लेता है जहाँ आशाओं की पुष्पगंधा महमहाती महक है-----
***
झूमती/
डाली लता की/
महमहाई रात भर.........
नेह में
गुलदाउदी
रह-रह नहाई रात भर।"  
              इस गीत पर आकर  मुझे जो सबसे बड़ी खुशी मिली वह ये है कि यथार्थ के बीहड़ को  पार करने वाला कवि न तो निराश है और न ही समय की लहरों के थपेड़ों से टूट और कटकर बूढ़ा या  जर्जर हुआ है। वह युवा है।उसमें रोमांस भर का मांस अब भी शेष है। इसी  बल पर वह उस प्यास को संतृप्त कर सका है कि----
"प्यास/ अधरों पर हमारे/छलछलाई रात भर।"
          सभी गीतों में शिल्प की कसावट और शब्दों की बुनावट सम्मोहित करती है। रूपक ,प्रतीक और बिंब एकाध स्थलों को छोड़कर घसीटकर लाए हुए नहीं मिलते।इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि गीतकार ने सायास कुछ भी नहीं किया है। कहीं-कहीं घिसटन साफ़-साफ़ दिखती है।लेकिन वह ऐसी नहीं कि पूरे गीत को भोंड़ी कर दे । कुछेक स्थलों पर आंतरिक लय भी  टूटती हुई-सी प्रतीत होती  है।लेकिन जहाँ -जहाँ और जब-जब इनको इंगित करने का मन हुआ। उल्लेख का मन बनाकर ठिठका भी तो थोड़ी ही देर में आगे बढ़ गया। चाह कर भी कुछ कर ही नहीं पाया । वह इसलिए कि ये त्रुटियाँ लगी ही  नहीं ।  इन अनदेखी की जा सकने  वाली  त्रुटियों को हमने प्रायः डिठौने की तरह ही पाया है।  
           यह सुखद ही है कि गीतकार की सामाजिक चेतना के भार के नीचे दबकर उसकी निजता दफ्न  नहीं हुई है।इसी कारण से उसके यहाँ सामाजिक चेतना की उद्दीप्त प्रतीति  के साथ -साथ निजी प्रीति भी उन्मुक्त भाव से अठखेलियाँ करती हुई मिल सकी  है-"प्रीति /अवगुंठन उठाकर /खिलखिलाई रात भर ।"
                      *****************

              डॉ.  गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
              प्रोफेसर एवं अध्यक्ष (हिन्दी पीठ),
              एशियाई संस्कृति ,भाषा एवं दर्शन विभाग ,
              क्वाङ्ग्चौ वैदेशिक अध्ययन विश्व विद्यालय ,
                                   क्वाङ्ग्चौ,चीन।

डॉ अर्चना गुप्ता की दो ग़ज़लें

             【एक】

मानवता का महँगा जेवर बेच दिया
खुद को ही लालच में आकर बेच दिया

मानव ने काटे जंगल अपने सुख को
धरती का हरियाला बिस्तर बेच दिया

देख न पाये सुंदरता तुम अंदर की
हीरा तभी समझ कर पत्थर बेच दिया

लोगों ने क्यों अपना नाम कमाने को
खुद्दारी के जैसा तेवर बेच दिया

आज छुपाने को गम ,आँखों का हमने
आँसूं से ही भरा समंदर बेच दिया

यादों से उनकी जो  महल बनाया था
वही उन्होंने कहकर खंडर बेच दिया

भूल 'अर्चना 'मात पिता को बच्चों ने
उनके सारे सपनों का घर बेच दिया

            
             【दो】

देखकर इक झलक ही नशा हो गया
बेकरारी का फिर सिलसिला हो गया

उनकी कसमें निभाना हमारे लिए
दर्द को आँख में थामना हो गया

दिख रहा खुद में उनका ही चेहरा हमें
आज दर्पण को जाने ये क्या हो गया

पहली पहली घिरी जो घटा  सावनी
देख कर दिल मेरा बावरा हो गया

वो जो पहलू में थे कल तलक उनसे आज
ज़िन्दगी मौत का फासला हो गया

बंदिशों में छिपा हित  है औलाद का
आज जाना वो जब खुद पिता हो गया

'अर्चना 'दर्द इतना पिया उम्र भर
अश्क का क़र्ज़ सारा अदा हो गया ।

नाम --डॉ अर्चना गुप्ता
शिक्षा -M.Sc (Physics) , M.Ed (Gold Medalist) , Ph.D
गृह नगर - Moradabad (U.P.)
Blog...www.itsarchana.com
E Mail- me@itsarchana.com
जन्म तिथि --15 जून
सम्प्रति -  प्रतिष्ठित समाचार पत्र ,पत्रिकाओं में रचनाएँ(मुक्तक ,ग़ज़ल, कवितायें)  प्रकाशित ,एक साझा काव्य संग्रह (उत्कर्ष काव्य संग्रह ), नव मुक्तक काव्य संकलन , साहित्य गौरव सम्मान (युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच2015 )।
लेखन विधा -गीत /ग़ज़ल / छंदमय काव्य /छंदमुक्त काव्य/गद्य लेखन ।

अनुभव गुप्ता की दो ग़ज़लें

                     【एक】

चंद लम्हों का जो था वो हमसफ़र अच्छा लगा
जो भी था जैसा भी था हमको मग़र अच्छा लगा

आपके आने से ज़िंदा हो गई थीं धड़कनें
नींद में कल रात ख़्वाबों का सफ़र अच्छा लगा

अपनी मंज़िल तक न हम पहुँचे ये किस्मत थी मग़र
साथ जिसके हम चले वो राहबर अच्छा लगा

रास्ते में जब मिला शरमा के नज़रें फेर लीं
वो हमारे हाल से यूँ बाख़बर अच्छा लगा

आज हम निकले थे घर से कुछ नयेपन के लिए
लौटकर जब आये तो अपना ही घर अच्छा लगा

बेबसी में एक तिनके का सहारा ही बहुत
धूप जब आई तो रस्ते का शजर अच्छा लगा

उसका मुझसे रूठ जाना, फिर मनाने पर मेरे
बेसबब आँसू बहाने का हुनर अच्छा लगा

मुद्दतों के बाद उसने हाल पूछा है मेरा
आईने में आज खुद को देखकर अच्छा लगा

        
                  【दो】

सर मेरे फिर कोई नए इलज़ाम के लिए
फिरते हैं कितने लोग इसी काम के लिए

साँसों में जिसकी खुशबू महकती है रात दिन
दिल बेकरार है उसी गुलफ़ाम के लिए

बेकाबू हो रही हैं अभी से ही धड़कनें
आने को कह गया है वो कल शाम के लिए

बजने लगी है बाँसुरी जमुना के घाट पर
बेचैन मीरा फिर हुई घनश्याम के लिए

रहते हैं मुल्क़ के सभी हालात ज्यों के त्यों
सरकारें आती जाती हैं बस नाम के लिए

इन मसनदों की इनको न तौफ़ीक़ दे खुदा
बैठे हैं कुर्सियों पे जो आराम के लिए

कुछ लोग भेजते हैं कबूतर के जरिये ख़त
मैंने चुना हवाओं को पैगाम के लिए

तुम आ गए हो और फज़ा भी है खुशगवार
क्या चाहिए अब और हसीं शाम के लिए

अनुभव गुप्ता

धीरज श्रीवास्तव का प्रेम गीत

❤ प्रेमगीत ❤

नजरों में मधुमास तुम्हारी
क्यों न लहकते गीत मेरे!
पंक्षी बन ये मन उड़ता जब
क्यों न चहकते गीत मेरे!
❤❤
प्रतिदिन छत पर साँझ उतरकर
रूप सँवारा करती है!
और नहाती जा सागर में
बदन उघारा करती है!
बाल खोल फिर मुस्काती जब
क्यों न बहकते गीत मेरे!
❤❤
दिखता है अब मुझे चाँद पर
सदा तुम्हारा ही साया!
तप्त तुम्हारी साँसों ने ही
सूरज को है दहकाया!
छुआ अधर से जब तुमने तो
क्यों न दहकते गीत मेरे!
❤❤
शब्द शब्द न्यौछावर तुम पर
यही सर्जना जीवन है!
शिल्प गढ़ा हैं प्रिये तुम्ही ने
भाव तुम्हारा यौवन है!
चंदन सी जब याद तुम्हारी
क्यों न महकते गीत मेरे!
❤❤

रचना---धीरज श्रीवास्तव
ए- 259, संचार विहार मनकापुर गोण्डा (उ.प्र)
फोन- 08858001681

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

मोहम्मद तबस्सुम परवेज़ की ग़ज़ल

ना तवाँ दिल था दुखा कर चल दिए
दूर से ही मुस्कुरा कर चल दिए

हम हुए रुख़सत जहाँ से और वो
आँख से आंसू बहा कर चल दिए

छोटे बच्चे आदमीयत का सबक़
बातों बातों में सिखा कर चल दिए

हम खड़े ही रह गए थे दम बखुद
आप रुख़ अपना दिखा कर चल दिए

भूखे बच्चों ने नसीहत कब सुनी
 आये और रोटी चुरा कर चल दिए

चलते चलते कर गए हम कारे खैर
रोते बच्चों को हंसा कर चल दिए

अपने बेगाने तबस्सुम हो गए
गौर में हम को सुला कर चल दिए

ناتواں دل تھا  دکها کر چل دئے
دور سے ہی مسکرا کر چل دئے

ہم ہوئے رخصت جہاں سے اور وہ
آنکه سے آنسو بہا کر چل دئے

چھوٹے بچے آدمیت کا سبق
باتوں باتوں میں سکها کر چل دئے

ہم کھڑے ہی رہ گئے تھے دم بخود
آپ رخ اپنا دکھا کر چل دئے

بهوکے بچوں نے نصیحت کب سنی
آئے اور روٹی چرا کر چل دئے

چلتے چلتے کر گئے ہم کار خیر
روتے بچوں کو ہنسا کر چل دئے

اپنے بے گانے تبسم ہو گئے
گور میں مجه کو سلا کر چل دئے

©मोहम्मद तबस्सुम परवेज़

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

शिरीष नाईक की तीन ग़ज़लें

          ग़ज़ल--1

आज जो मुझको दिखा है आईना
खूब मुश्किल में पड़ा है आईना

सच कहाँ दिखला रहा है आईना
अब नकाबों से सजा है आईना

अक्स की मेरे थी मुझको ही तलाश
उसका चेहरा ही दिखा है आईना

जब से रूठे है मेरे दिलदार भी
मुझसे मेरा ही रूठा है आईना

जब कभी ये हुस्न को निहारता
दीवाना आशिक लगा है आईना

जब कभी तन्हाई में रहता हूँ मैं
बन के मैं मुझको मिला है आईना

जब कभी होने लगे तुझको गुरुर
इक निगाह देख लेना आईना

रोती हँसती और संवरती जिस्त में
उम्रभर बस साथ देता आईना

                ग़ज़ल--2

इस क़दर बनके सबा आप मुझे छू निकले....
अब तो हर सांस से बस आप कि खुशबू निकले....

तू नहीं है तो मेरे घर में है उदासी कुछ....
ढूंढने तुझको मेरे चश्म के जुगनू निकले....

मेरा तो सब्र भी हद से ही गुजर जाता है
तहज्जुल की अजाँ से कोई जादू निकले

इल्तिज़ा मेरी हमेशा ही रही मौला से
जिस्त से कोई मुकम्मल तो आरजू निकले

क्या जमीं पर है सितारा कोई रौशन तो हुआ
चाँद सूरज यूँ फलक पर जो दूबदू निकले

ज़ेर-ए-आसमाँ क्या कोई ला-ज़वाल रहा
बे-इंतिहा क्यों बशर की यूँ जुस्तजू निकले

शौक़-ए-आस्ताँ कोई मेरा बाकी न रहा
अब मोजेजा हो दिल से न तू निकले

         
          ग़ज़ल--3

कितने किरदार है कहानी में
वक्त की उलझी इस रवानी में।

इन सवालों का फायदा अब क्या
फूल कितने मिले जवानी में।

जब मैं निकला हूँ घर से बाहर तो
चाँद सूरज थे मेजबानी में।

आशिकी में तो ये रिवायत है
जख्म उसने दिया निशानी में।

मेरी मुरझा गई है यादे वो
मैं था जिनके ही बागबानी में।

©शिरीष नाईक

मनमोहन सिंह दर्द लखनवी की ग़ज़लें

                ग़ज़ल-एक

ये बाते प्यार की है या मेरी दीवानगी की है
मगर क्यों लोग कहते है मेरी आवारगी की है

मोहब्बत कैसे करते हम जो मैखाने नहीं होते
तेरी आँखों में जानम डूब कर ही आशिकी की है

हुए मसरूर हम पीकर मये अंगूर को लेकिन
जो छलके आँख से तो ख़ाक हमने मैकशी की है

जो रौशन है वफ़ा का एक दीपक आस्तानो में
खुदा का शुक्र है हमने उसी से दोस्ती की है

यहाँ पर अब अंधेरो से नहीं है वास्ता कोई
जो आके इस हसीं महफ़िल में उसने रौशनी की है

ग़ज़ल हमसे तो कोई अब मुकम्मल हो नहीं पाती
मगर वो कह रहें है हमने उम्दा शायरी की है

                ग़ज़ल-दो

तेरी नज़रों में उल्फत का असर ढूंढते है
हम ऐसा मोहब्बत का नगर ढूंढते है

रूह जो शाद कर दिल को जो पुरनूर करे
प्रेम सिंधु मे कोई डूबी नज़र ढूंढते है

फूल से लगने लगें जमाने भर के सितम ।
तेरी रहमत का जो साया दे शजर ढूंढते है ।

मन की आँख से जो मिल जाए मुझे भी दर्शन ।
सत्य , शाश्वत ,  मुर्शिद की डगर ढूंढते है ।

नूर ही नूर जहां रौशनी हर सम्त मिले
दिल के राही तो तौफीके-सफ़र ढूंढते है ।

कॉपीराईट मनमोहन सिंह दर्द लखनवी
               लखनऊ उत्तर प्रदेश

धीरज श्रीवास्तव का गीत

🍂माफ करना🍂
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हो सके तो माफ करना
हाथ जोड़े जा रहा हूँ!
जिन्दगी सम्बन्ध तुमसे
आज तोड़े जा रहा हूँ!
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चुभ रहे थे ये हृदय में
रोज बनकर शूल से!
जो लगे थे पै़रहन पर
दाग मेरी भूल से!
आँसुओं ने धो दिए अब
बस निचोड़े जा रहा हूँ!
जिन्दगी सम्बन्ध----------
**
सोचकर पछता रहा हूँ
साथ चल पाया नहीं!
तोड़कर मैं चाँद तारे
क्यों भला लाया नहीं?
क्या करूँ अब राह अपनी
मीत मोड़े जा रहा हूँ!
जिन्दगी सम्बन्ध---------
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अग्नि देकर यार मुझको
लौट आएँगें सभी!
पर रचे जो गीत तुम पर
खूब गाएँगें कभी!
इसलिए इनको तुम्हारे
पास छोड़े जा रहा हूँ!
जिन्दगी सम्बन्ध---------
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रचना -- धीरज श्रीवास्तव
मनकापुर,गोंडा,उत्तर प्रदेश
8858001681
चित्र गूगल से साभार